छोटी जीवनलीला।
क्ई हट्टेकट्टे लोग जो पूरे स्वस्थ दिखाई देते थे आजकल भगवान के दरबार की कही शोभा बढा रहे होगे।
Mere pas dheron nai nai baten hai jinse aap sabko parichit karana chahta hun.suniye....
Monday, November 28, 2011
Sunday, November 27, 2011
आधा विश्व: आधा विश्व: दुनिया
महगाँई से बोखलाए सारे तमाचे आजकल किसी अनूकूल गाल की तलाश मे भटकते दिखाई देते है।एसा बस लोग अनुमान करते है कि महँगाई ने उन तमाचो को ईतना हिँसक बना दिया है कि गाल दिखाई दिया नही कि वे अपने आपको सम्भाल नही पाते।वास्तव मे ईस अलगाव कि असल वजह खुद उन तमाचो को भी मालूम नही।वजहे जब गणना के दायरे से बाहर हो जाती है तो हमे मालूम ही नही रहता कि हमारा आक्रोश बावजह भी है।मैरे तमाचे मे भी आक्रोश की माकूल भावनाए पैदा हो रही है लेकिन मेरे तमाचे को अभी बहुत संतोष करना पडेगा क्योकि लाइन बहुत लम्बी हो चुकि है।एक बडी पेचीदा समस्या ओर भी है जिसका समाधान शायद सरकार के बजट मे हो यह कि असँख्य तमाचो के सामने मुह तो उगलीयो पर गिने जाने लायक है एसे मे सभी तमाचो के शाथ न्याय का तत्काल कोई उपाये किया जाना चाहिए।कम से कम दस तमाचो पर एक गाल तो होना ही चाहिए ताकि अन्तरष्ट्रीय मानक के थोडा तो करीब हो।
कल एक आदमी अपने स्तर के एक आदमी के साथ लडते लडते इतना तैश मे आया कि वो तमाचा मारने लगा शुक्र है कि मै समय पर पहुच गया वरना तमाचे के प्रोटोकोल से अनभिज्ञ वे साधारण आदमी गलत कर जाते।मैने विस्तारपूर्वक समझाया-"हे लोकतन्त्र के सातसौ वे स्तम्भ आप क्या अधर्म करने जा रहे थे।आपको शायद मालूम नही आपका तमाचा वास्तव मे ब्रह्मश्त्र है जिसके युँ आपस मे प्रयोग से न तो उचित प्रचार मिलेगा और न ही सुधार का कोई मार्ग।आपको चाहिये कि एक फार्म भरकर तमाचे राष्ट्रीय प्रर्दशन मे भागीदार हौ क्या पता आपका तमाचा एसे किसी गाल की शोभा बने जो कि दुर्लभ तथा अनछुआ हो।"
मेरे तमाचा ज्ञान से वे इतने प्रभावित हुए कि पहले तो आपस मे गले मिले और मुझसे फार्म की वेबसाइट पता की ओर खुशी खुशी घर चले गये।
धीरज पुन्डीर
कल एक आदमी अपने स्तर के एक आदमी के साथ लडते लडते इतना तैश मे आया कि वो तमाचा मारने लगा शुक्र है कि मै समय पर पहुच गया वरना तमाचे के प्रोटोकोल से अनभिज्ञ वे साधारण आदमी गलत कर जाते।मैने विस्तारपूर्वक समझाया-"हे लोकतन्त्र के सातसौ वे स्तम्भ आप क्या अधर्म करने जा रहे थे।आपको शायद मालूम नही आपका तमाचा वास्तव मे ब्रह्मश्त्र है जिसके युँ आपस मे प्रयोग से न तो उचित प्रचार मिलेगा और न ही सुधार का कोई मार्ग।आपको चाहिये कि एक फार्म भरकर तमाचे राष्ट्रीय प्रर्दशन मे भागीदार हौ क्या पता आपका तमाचा एसे किसी गाल की शोभा बने जो कि दुर्लभ तथा अनछुआ हो।"
मेरे तमाचा ज्ञान से वे इतने प्रभावित हुए कि पहले तो आपस मे गले मिले और मुझसे फार्म की वेबसाइट पता की ओर खुशी खुशी घर चले गये।
धीरज पुन्डीर
आधा विश्व: आधा विश्व: दुनिया
हमने देखी है हर शय मे गुजर अब तक।
मगर तुमसा भी नही देखा बेखबर अब तक।
आदमी चाँद पर जा पहुँचा और हम यही है।
तुम जो छोड ही नही पाए अपना घर अबतक।
मगर तुमसा भी नही देखा बेखबर अब तक।
आदमी चाँद पर जा पहुँचा और हम यही है।
तुम जो छोड ही नही पाए अपना घर अबतक।
आधा विश्व: आधा विश्व: दुनिया
सजा -ए-मोत से हर कोई बस ईसलिए परिचित नही है कि ईसे हमने अपने आस पास के लोगो को भुगतते देखा है और फिल्मो मे इसी बिन्दु पर हमारी भावनाओ की परिक्षा होती है बल्कि गलत सोच के पीछे लटकती कानून की दिवार हमे कुछ भी नाकाबिले बर्दाश्त करने से रोके रखती है।सजा-ए-मोत पाना किसी शिरफिरे का या मजबुर आदमी का शगल हो तो हो एक आम सामाजिक आदमी इसके विषय मे सोचना तक गुनाह मानता है।इसीलिए अब तक समाज मे संतुलन कायम है वरना सरकार का एक अतिरिक्त काम हो जायगा कि वो सडको से उन लाशो को बटोरती फिरे जिनमे एक छोटी सी बात को लेकर खूनखराबा हो गया था।
इस लेख के संदर्भ मे एक कहावत याद आती है जोकि सदियौ से यूही हमारे बीच प्रचलन मे रही है कि,बिनु भय प्रीत न होये गोपाला।पता नही कि इस सुक्ति को मै सही तरीके से कह पाया हुँ या नही लेकिन भाव समझ लेना काफी है।
अखबारो मे क्राइम के नित नये आकडो को पढकर अनजाना सा भय मन मे अनायास पनप आया।और प्रशासन की दशा दिशा पर एक टिप्पणी मन मे कुलबुलाने लगी।जो चीचे समाज तथा देश के लिए घातक है लेकिन हम उनके अदने से स्वरुप के कारण उन्हे दिनचर्या मे स्वभाविक रुप से होने दे रहे है सामूहिक रुप मे उनका आकार रावण के काल्पनिक रुप से जरा भी कमतर नही है।हम जब मिडिया के स्रोतो से जुटाए आकडो को देखकर भयभीत होते है तब जरा भी अनूमान नही करते कि यह सब हमारी छोटी छोटी भूलो और लापरवाहियो से उपजी समस्याए है।एक बार का वाकिया मेरे साथ हुआ बाईक से मै कही जा रहा था।शाम हो रही थी।एक बिल्कुल बियाबान जंगल मे रास्ते पर दो सिपाही बैठे बीडी फूँक रहे थे।उनके सामने चार लोग तथा दो बाईक और खडी थी।वे चारो भी मेरी तरह मुशाफिर थे।मुझे ही क्या हिन्दूस्तान के बच्चे बच्चे को पता है कि पुलिस सुरक्षा के नाम पर एसी सुनसान जगहो पर वही काम करती है जिसको रोकने के लिए उनको वहा बैठाया जाता है1मेरी बाईक को देखकर उनमे से एक उठा और यह दर्शाता हुआ कि अपनी ड्यूटी के साथ वो ईससे ज्यादा इन्शाफ नही कर सकता वो मेरे पास आया और मुझे यू हाथ देकर रोब से रोका मानो उसके सामने आम पब्लिक के बतोर मेरे जरा भी अधिकार नही थे ।और एसा उसे जताने की आवश्यकता भी नही थी क्योकि हर आदमी पहले से बिना वजह के उनके खोफ के खोफजदा रहता ।मुझसे पहले मोजूद लोग तो बैठे हुए बिल्ली के बच्चे प्रतीत होते थे।"चल कागज निकाल"-वो बोला न अदब न कायदा कुल जमा हिटलरशाही।मैने जो था उसके सामने रख दिया।"बीमा नही है"
"कल ही तो खत्म हुआ है बनवा लूगाँ।"मैने कहा सोचा थोडी इन्शानियत तो उनमे भी होती होगी।
"ज्यादा बकवास करेगा तो जबान खीच लूगाँ।मैने हसकर सोचा जबान तो खीचने से उसे कोई माइ का लाल रोक नही सकता उपर से जबान खीचने की उजरत भी मागेँगा1दोतरफा नुकसान।
फटाफट पैसे निकाल और निकल हमारे पास समय नही।वह दो सो के नोट के ख्वाब पाले बैठा था ।मुझे बडा आन्नद आया के अब मेरी बारी थी और मै एक ही वार मे उसे आसमान से जमीन पर पटक दूगाँ।
"जनाब आप एसा करे कि चालान बुक और पैन निकाले और चालान काटे"-मैने उसके ललचाये चेहरे को देखकर कहा1और उसके चेहरे पर नजर गडाए रखी जब वो सकपकाया तो मैने साफ देखा1
"चालान बुक तो नही है"उसने अपने साथी की तरफ देखा।
"तो आप एसा करे कि थाने का नम्बर दे मै फोन करके मगाँ लेता हूं।"मै बोळा"या मै रुकु"
कहने की जरूरत नही कि फिर क्या हुआ होगा।लेकिन हर बार एसा नही होता मै भी क्इ बार लुटा ओर लोग भी लुटते ही रहते है मलाल यह कि उनके हाथो जो कहने को रक्षक हैं।
इस लेख के संदर्भ मे एक कहावत याद आती है जोकि सदियौ से यूही हमारे बीच प्रचलन मे रही है कि,बिनु भय प्रीत न होये गोपाला।पता नही कि इस सुक्ति को मै सही तरीके से कह पाया हुँ या नही लेकिन भाव समझ लेना काफी है।
अखबारो मे क्राइम के नित नये आकडो को पढकर अनजाना सा भय मन मे अनायास पनप आया।और प्रशासन की दशा दिशा पर एक टिप्पणी मन मे कुलबुलाने लगी।जो चीचे समाज तथा देश के लिए घातक है लेकिन हम उनके अदने से स्वरुप के कारण उन्हे दिनचर्या मे स्वभाविक रुप से होने दे रहे है सामूहिक रुप मे उनका आकार रावण के काल्पनिक रुप से जरा भी कमतर नही है।हम जब मिडिया के स्रोतो से जुटाए आकडो को देखकर भयभीत होते है तब जरा भी अनूमान नही करते कि यह सब हमारी छोटी छोटी भूलो और लापरवाहियो से उपजी समस्याए है।एक बार का वाकिया मेरे साथ हुआ बाईक से मै कही जा रहा था।शाम हो रही थी।एक बिल्कुल बियाबान जंगल मे रास्ते पर दो सिपाही बैठे बीडी फूँक रहे थे।उनके सामने चार लोग तथा दो बाईक और खडी थी।वे चारो भी मेरी तरह मुशाफिर थे।मुझे ही क्या हिन्दूस्तान के बच्चे बच्चे को पता है कि पुलिस सुरक्षा के नाम पर एसी सुनसान जगहो पर वही काम करती है जिसको रोकने के लिए उनको वहा बैठाया जाता है1मेरी बाईक को देखकर उनमे से एक उठा और यह दर्शाता हुआ कि अपनी ड्यूटी के साथ वो ईससे ज्यादा इन्शाफ नही कर सकता वो मेरे पास आया और मुझे यू हाथ देकर रोब से रोका मानो उसके सामने आम पब्लिक के बतोर मेरे जरा भी अधिकार नही थे ।और एसा उसे जताने की आवश्यकता भी नही थी क्योकि हर आदमी पहले से बिना वजह के उनके खोफ के खोफजदा रहता ।मुझसे पहले मोजूद लोग तो बैठे हुए बिल्ली के बच्चे प्रतीत होते थे।"चल कागज निकाल"-वो बोला न अदब न कायदा कुल जमा हिटलरशाही।मैने जो था उसके सामने रख दिया।"बीमा नही है"
"कल ही तो खत्म हुआ है बनवा लूगाँ।"मैने कहा सोचा थोडी इन्शानियत तो उनमे भी होती होगी।
"ज्यादा बकवास करेगा तो जबान खीच लूगाँ।मैने हसकर सोचा जबान तो खीचने से उसे कोई माइ का लाल रोक नही सकता उपर से जबान खीचने की उजरत भी मागेँगा1दोतरफा नुकसान।
फटाफट पैसे निकाल और निकल हमारे पास समय नही।वह दो सो के नोट के ख्वाब पाले बैठा था ।मुझे बडा आन्नद आया के अब मेरी बारी थी और मै एक ही वार मे उसे आसमान से जमीन पर पटक दूगाँ।
"जनाब आप एसा करे कि चालान बुक और पैन निकाले और चालान काटे"-मैने उसके ललचाये चेहरे को देखकर कहा1और उसके चेहरे पर नजर गडाए रखी जब वो सकपकाया तो मैने साफ देखा1
"चालान बुक तो नही है"उसने अपने साथी की तरफ देखा।
"तो आप एसा करे कि थाने का नम्बर दे मै फोन करके मगाँ लेता हूं।"मै बोळा"या मै रुकु"
कहने की जरूरत नही कि फिर क्या हुआ होगा।लेकिन हर बार एसा नही होता मै भी क्इ बार लुटा ओर लोग भी लुटते ही रहते है मलाल यह कि उनके हाथो जो कहने को रक्षक हैं।
Tuesday, November 22, 2011
क्या बदला लेना मेरा अधिकार नही?
मेरे बडे भाई उत्तराखण्ड मे रहकर काम करते थे।अभी तीन साल पहले वहाँ गये थे।मै यदा कदा उनके पास घूमने जाया करता तो वे कहा करते कि धीरज तेरे लेखन कार्य के लिये ये पहाडी माहोल अनुकूल है तू यही रहकर कोई अच्छी किताब लिख डाल।मै उनकी व्यापक सोच का कायल था।मैने उनको जवाब दिया था के मै एक दिन जरुर उनके साथ रहने आउँगा क्योकि पहाडो का वह शान्त जीवन एक लेखक के बतोर ही मेरे लिये मुफीद नही था मै वैसे भी उस जीवन को अच्छा मानता था और उसे जीने की मेरी दिली अभिलाषा थी।2011 मे मुझे काम के शिलशिले मे वैसे ही वहाँ जाना ही था।जब मै सतपुली जहाँ वे रहते थे पहुचाँ तो स्वर्ग मे पहुँच जाने शरीखी खुशी हुई थी।भाई ने अपनी जेसीबी मशीन दिखाई जो पहाडो के कठोर सीने को एसे चीरती थी मानो रुई के फाहे अलग कर रही हो।उनके कर्मचारियो ने मुझे सम्मान के साथ बैठेया और पहाडी सब्जियो के साथ स्वादिष्ट खाना खिलाया जिसका स्वाद जीभ आज तक महसूस करती है।अपने दो साझीदारो से परिचय कराते वे बडे खुश थे।काम मे दिनभर भागे फिरते रहना उनका पशंदीदा शगल था।आलश्य का नाम लेना उनको अखरता था।मै चार पाँच रोज उनके पास ठहरकर गाँव लोट आया था।वापसी मे सोच रहा था के पता नही दोबारा इस सुन्दर जगह को देखना कब नसीब हो।घर लोटकर मै अपने काम मे मशगूल हुआ तो पहाड की आबोहवा की गन्ध मानो दिमाग से निकल ग्ई।चार हफ्ते बाद पता लगा कि भाई का किसी के साथ झगडा हो गया है।मैने फोन किया तो उन्होने हसकर टाल दिया।
24अप्रैल 2009 को गाँव मे खबर आई कि भाई का एक्सीडेन्ट हो गया।हम आशंका के मारे फोरन कोटद्वार पहुँते तो पाया के भाई की मोत हो चुकि थी।मै समझ गया कि यह हत्या का मामला हैं क्योकि उनके सब कर्मचारी गायब थे उनके साझीदार भी।घटनास्थल भी अपनी कहानी ब्यानकर रहा था मैने तीन चार दिन बाद हत्या की नामजद रिपोर्ट थाना पोडी गडवाल मे कर दी क्योकि दिलो दिमाग पर जो मेरे चोट हुई थी मै उसका बदला लेना चाहता था लेकिन कानूनी तरीके से मुझे विस्वाष था कि कानून अभी मरा नही है।लेकिन मानो दुनिया का हर आदमी एक भ्रम के साथ जी रहा है बिल्कुल मेरी तरह ।जो दिखाई देता है वास्तव मे वो है ही नही की न्याय।एक दफ्तर से दूसरे तथा एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी की खाक छानते आज तीन साल होने को आये है लेकिन मुझसे उतना ही दूर है जितना कि मेरा मर चुका भाइ।न्याय की कुर्सी पर बैठे लोगो की मानो सवेदना मर चुकि है।वे मेरी भावनाओ को नही समझ सकते और नही ईस तथ्य को कि न्याय आम आदमी का अधिकार है जिसे हर हाल मे आदमी प्राप्त करना चाहेगा।मै अपने म्रत भाइ की आत्मा की शान्ति के लिये न्याय की गुहार हर जगह लगा चुका।अब मेरे पास सिर्फ एक रास्ता बचा है1कि मै उन लोगो कि हत्या कर दू जिन्होने मेरे माँ बाप को खून के आशु रोने पर मजबूर किया है । क्या यह गलत होगा? क्या मुझे भी खून का घूट पीकर बैठ जाना चाहिये? क्या यू बुराई ओर ज्यादा नही बढेगीँ?
24अप्रैल 2009 को गाँव मे खबर आई कि भाई का एक्सीडेन्ट हो गया।हम आशंका के मारे फोरन कोटद्वार पहुँते तो पाया के भाई की मोत हो चुकि थी।मै समझ गया कि यह हत्या का मामला हैं क्योकि उनके सब कर्मचारी गायब थे उनके साझीदार भी।घटनास्थल भी अपनी कहानी ब्यानकर रहा था मैने तीन चार दिन बाद हत्या की नामजद रिपोर्ट थाना पोडी गडवाल मे कर दी क्योकि दिलो दिमाग पर जो मेरे चोट हुई थी मै उसका बदला लेना चाहता था लेकिन कानूनी तरीके से मुझे विस्वाष था कि कानून अभी मरा नही है।लेकिन मानो दुनिया का हर आदमी एक भ्रम के साथ जी रहा है बिल्कुल मेरी तरह ।जो दिखाई देता है वास्तव मे वो है ही नही की न्याय।एक दफ्तर से दूसरे तथा एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी की खाक छानते आज तीन साल होने को आये है लेकिन मुझसे उतना ही दूर है जितना कि मेरा मर चुका भाइ।न्याय की कुर्सी पर बैठे लोगो की मानो सवेदना मर चुकि है।वे मेरी भावनाओ को नही समझ सकते और नही ईस तथ्य को कि न्याय आम आदमी का अधिकार है जिसे हर हाल मे आदमी प्राप्त करना चाहेगा।मै अपने म्रत भाइ की आत्मा की शान्ति के लिये न्याय की गुहार हर जगह लगा चुका।अब मेरे पास सिर्फ एक रास्ता बचा है1कि मै उन लोगो कि हत्या कर दू जिन्होने मेरे माँ बाप को खून के आशु रोने पर मजबूर किया है । क्या यह गलत होगा? क्या मुझे भी खून का घूट पीकर बैठ जाना चाहिये? क्या यू बुराई ओर ज्यादा नही बढेगीँ?
आधा विश्व: दुनिया
प्रेम और ईश्क-
फिल्मो मे प्रेम विषय का इस्तेमाल लम्बे समय से ईतनी शिद्दत से होता रहा है कि आज प्रेम की वास्तविक भावना और गरीमा गायब हो ग्ई है।साहित्य के हर रुप मे प्रेम अकेले शीर्षक के रुप मे लोगो के दिमाग पर छाया रहा नतीजा यह की जो लिखा गया या जो फिल्माया गया वो समाज के मानस पर इतने गहरे से छा गया है कि हमने उसकी दिमाग मे तस्वीर बना डाली, लेकिन प्रेम कि उस तस्वीर की भावनात्मक छवि मे वह सबकुछ बिल्कुल भिन्न था जो कि मैने तब महसूस किया जबकि मुझे खुद प्रेम हो गया था।
दसवी क्लास मे लडके और लडकिया ईकट्ठे बैठ सकते थे उससे पहले हमारे देहात के काँलिज मे लडके और लडकियो के बैठने के कमरे अलग 2 होते थे।दसवी का सत्र शुरू होते ही लडको को जैसे पढाई से ज्यादा आकर्षण लडकियो को देखने मे हो गया वे लडकियो को निहारते और लडकिया दबी जुबान मुस्कुराती और आन्नद उठाती थी।हफ्ते भर मे मानो आँखो ही आँखो मे आपस मे तालमेल हो गये।एक समय एसा लगने लगा के जैसे हम छात्र नही किसी रोमान्टिक फिल्म के किरदार थे।सुबह से लेकर छुट्टी होने तक हर लडका लडकी अपने अरमानो को शान्त करने की जुगत मे लगे रहते बस एकमात्र साधन के बूते और वह शाधन आँखो के ईशारे थे।वार्ता की उस नायाब तरकीब का श्रेय आशिको को ही जाता है।बिना एक भी लब्ज का इस्तेमाल किये शारा हाल कह देना कमाल की विधा थी।मै प्रक्रति से उस समय बेहद शर्मीला था।मेरी इसी भावना ने मुझ अकेले को उस फिल्म का एकलोता दर्शक बना दिया।मित्रो का दायरा ईतना लम्बा था के उसमे लगभग क्लास आ जाती थी।मित्रौ ने एक दिन मेरी डायरी पढकर जान लिया के मै लेखन मे रुचि रखता हू।एक बिल्कुल परम मित्र ने आग्रह किया कि मै उसका प्रेम पत्र लिखु।पहले तो सुनकर लगा कि उसने मेरी विधा को मजाक समझ लिया लेकिन यह वास्तव मे एक शिर्षक था।एक परिक्षा भी।मैने लिखा।तीन दिन बाद उसका प्रतिफल मिल गया।लडके का रुका हुआ प्रेम चल पडा।रुठी हूई उसकी प्रेमिका एसी जुडी कि उसको पिँड छुडाना मुश्किल हौ गया।ईधर मेरा प्रेमपत्र लेखक के रुप मे एसा प्रचार हुआ के मै पढाई को वक्त दे पाने मे असमर्थ हो गया। महाना टेस्ट मे लिखते समय प्रेमपत्रो की थीम दिमाग से निकलती ही न थी।एक लडकि जो जिसका नाम पूजा शर्मा था अपने ग्रुप की लडकियो के पास पहूचे हर पत्र को पढती थी।एक दिन खाली क्लास मे आकर मेरे पास बैठ ग्ई।मै उसके यू बेबाकि से आकर बैठ जाने से घबरा गया वह पहला मोका था जब एक लडकी से मै करीब से बात कर रहा था।वे क्षण आज भी मेरे दिल के एक कोने मे बहुत सहेजकर रखे हुए है।"आप लिखते बहुत अच्छा हैं"-उसने कहा उसकी आवाज बहुत प्यारी थी या एक अजनबी लडकी की आवाज होने के कारण और उस भावना के कारण कि दो अजनबी लडका और लडकी मिलेँगे तो मन मे प्रेम के शिवा कोई भावना पैदा नही होगी।अचानक क्लास मे एक साथ क्ई छात्र घुसे और मेरे सुखद क्षणो को विराम लग गया।
अब मेरी जिन्दगी की अचानक ही दिनचर्या बदल ग्ई हालाकि उस लडकी के उस एक वाक्य का उद्देश्य कुछ भी हो सकता था लेकिन प्रेम की सुखद अनुभूति के शिवा मुझे कुछ सूझा ही नही।अब क्लाश मे दूसरे लडको की कतार मे मै खुद खडा था।आँखो से कैसे बात होती है मै भी सीख गया था।पुजा के शिवा दूसरा कोई चेहरा खूबसूरत नही लगता था।दिन मे कम से कम एक बार उषे देखे चैन नही आता था।प्रेम की स्वीकारोक्ति भी मूक भाषा मे हुई।धीरे धीरे एक दूसरे की आदतो से परिचित हुए।बात करने की अभिलाषा दिदार तक सिमट ग्ई।दो साल तक हमारा प्रेम एसे ही चलता रहा।एक वाक्य से ज्यादा बात नही।लेकिन पूर्ण सन्तुष्टि।आज पूजा शर्मा कहाँ है मै नही जानता लेकिन उसका अक उसका पाक प्रेम,उसका कहा वह वाक्य मेरे प्रेम का दस्तावेज मेरे पास सुरक्षित है1आत्मसन्तुष्टि एसी कि उसे न कोई किताब न कोई फिल्म ब्याँ कर सकती है.
फिल्मो मे प्रेम विषय का इस्तेमाल लम्बे समय से ईतनी शिद्दत से होता रहा है कि आज प्रेम की वास्तविक भावना और गरीमा गायब हो ग्ई है।साहित्य के हर रुप मे प्रेम अकेले शीर्षक के रुप मे लोगो के दिमाग पर छाया रहा नतीजा यह की जो लिखा गया या जो फिल्माया गया वो समाज के मानस पर इतने गहरे से छा गया है कि हमने उसकी दिमाग मे तस्वीर बना डाली, लेकिन प्रेम कि उस तस्वीर की भावनात्मक छवि मे वह सबकुछ बिल्कुल भिन्न था जो कि मैने तब महसूस किया जबकि मुझे खुद प्रेम हो गया था।
दसवी क्लास मे लडके और लडकिया ईकट्ठे बैठ सकते थे उससे पहले हमारे देहात के काँलिज मे लडके और लडकियो के बैठने के कमरे अलग 2 होते थे।दसवी का सत्र शुरू होते ही लडको को जैसे पढाई से ज्यादा आकर्षण लडकियो को देखने मे हो गया वे लडकियो को निहारते और लडकिया दबी जुबान मुस्कुराती और आन्नद उठाती थी।हफ्ते भर मे मानो आँखो ही आँखो मे आपस मे तालमेल हो गये।एक समय एसा लगने लगा के जैसे हम छात्र नही किसी रोमान्टिक फिल्म के किरदार थे।सुबह से लेकर छुट्टी होने तक हर लडका लडकी अपने अरमानो को शान्त करने की जुगत मे लगे रहते बस एकमात्र साधन के बूते और वह शाधन आँखो के ईशारे थे।वार्ता की उस नायाब तरकीब का श्रेय आशिको को ही जाता है।बिना एक भी लब्ज का इस्तेमाल किये शारा हाल कह देना कमाल की विधा थी।मै प्रक्रति से उस समय बेहद शर्मीला था।मेरी इसी भावना ने मुझ अकेले को उस फिल्म का एकलोता दर्शक बना दिया।मित्रो का दायरा ईतना लम्बा था के उसमे लगभग क्लास आ जाती थी।मित्रौ ने एक दिन मेरी डायरी पढकर जान लिया के मै लेखन मे रुचि रखता हू।एक बिल्कुल परम मित्र ने आग्रह किया कि मै उसका प्रेम पत्र लिखु।पहले तो सुनकर लगा कि उसने मेरी विधा को मजाक समझ लिया लेकिन यह वास्तव मे एक शिर्षक था।एक परिक्षा भी।मैने लिखा।तीन दिन बाद उसका प्रतिफल मिल गया।लडके का रुका हुआ प्रेम चल पडा।रुठी हूई उसकी प्रेमिका एसी जुडी कि उसको पिँड छुडाना मुश्किल हौ गया।ईधर मेरा प्रेमपत्र लेखक के रुप मे एसा प्रचार हुआ के मै पढाई को वक्त दे पाने मे असमर्थ हो गया। महाना टेस्ट मे लिखते समय प्रेमपत्रो की थीम दिमाग से निकलती ही न थी।एक लडकि जो जिसका नाम पूजा शर्मा था अपने ग्रुप की लडकियो के पास पहूचे हर पत्र को पढती थी।एक दिन खाली क्लास मे आकर मेरे पास बैठ ग्ई।मै उसके यू बेबाकि से आकर बैठ जाने से घबरा गया वह पहला मोका था जब एक लडकी से मै करीब से बात कर रहा था।वे क्षण आज भी मेरे दिल के एक कोने मे बहुत सहेजकर रखे हुए है।"आप लिखते बहुत अच्छा हैं"-उसने कहा उसकी आवाज बहुत प्यारी थी या एक अजनबी लडकी की आवाज होने के कारण और उस भावना के कारण कि दो अजनबी लडका और लडकी मिलेँगे तो मन मे प्रेम के शिवा कोई भावना पैदा नही होगी।अचानक क्लास मे एक साथ क्ई छात्र घुसे और मेरे सुखद क्षणो को विराम लग गया।
अब मेरी जिन्दगी की अचानक ही दिनचर्या बदल ग्ई हालाकि उस लडकी के उस एक वाक्य का उद्देश्य कुछ भी हो सकता था लेकिन प्रेम की सुखद अनुभूति के शिवा मुझे कुछ सूझा ही नही।अब क्लाश मे दूसरे लडको की कतार मे मै खुद खडा था।आँखो से कैसे बात होती है मै भी सीख गया था।पुजा के शिवा दूसरा कोई चेहरा खूबसूरत नही लगता था।दिन मे कम से कम एक बार उषे देखे चैन नही आता था।प्रेम की स्वीकारोक्ति भी मूक भाषा मे हुई।धीरे धीरे एक दूसरे की आदतो से परिचित हुए।बात करने की अभिलाषा दिदार तक सिमट ग्ई।दो साल तक हमारा प्रेम एसे ही चलता रहा।एक वाक्य से ज्यादा बात नही।लेकिन पूर्ण सन्तुष्टि।आज पूजा शर्मा कहाँ है मै नही जानता लेकिन उसका अक उसका पाक प्रेम,उसका कहा वह वाक्य मेरे प्रेम का दस्तावेज मेरे पास सुरक्षित है1आत्मसन्तुष्टि एसी कि उसे न कोई किताब न कोई फिल्म ब्याँ कर सकती है.
कुत्ता मेरा
ठंड का मोसम चल रहा था।जनवरी का महीना।रात के दस बजे मै अपनी बैठक मे रजाई मे पडा डिबिया की रोशनी मे गोर्की को पढ रहा था।हमारी बैठक गाँव के मुख्य रास्ते पर है ईसलिये रात के दस बजे तक वहाँ लोग बैठकर देश दुनिया के विषय मे खूब बेपर की उडाया करते है।गाँव की जिन्दगी का यह भाग ही मुझे सबसे लुभावना लगता है।जैसे ही लोग सोने के लिये उठे मै किताब लेकर पढने मे मशगूल हो गया।दस बजे तब जाडे की रात मे सडक पर थोडी बहुत आवाजाही चल रही थी।उसी आवाजाही मे गाँव का एक आदमी जो दारु पिये था अचानक मेरे पास आ धमका।उसके पाँव कही-कही पड रहे थे।बिना बोले उसने एक कुत्ते का बच्चा मेरी गोद मे रख दिया।वह पानी मे भीगा हुआ था।बेचारा ठंड मे मर जायेगा-उसने कहा और चला गया।बच्चा धीरे से मेरी रजाई मे घुसकर आराम से सो रहा मानो यह बिस्तर उसी का था।उसके हालात पर जो दया मन मे पैदा हुई थी उसने उस पिल्ले के साथ मेरे सम्बन्धो के तार जोड दिये।अब यह रोज का नियम हो गया वह दिनभर चाहे जहाँ रहे एक तो तीन वक्त खाने के लिये घर पहुँच जाता और रात को मेरे बिस्तर मे।उसने मुझे समाज के ताने बाने से योंहि रुबरु करा दिया।कुछ ही दिन मे उसने खुद को परिवार का सदस्य साबित कर डाला।सदस्य भी वह नामभर का नही था वह अपने कर्तव्यो का निर्वाह करता जो खुद उसी ने तय कर लिये थे।सुबह वह मेरे साथ खेत पर जाता ओर पूरे दिन घर और बैठक कि रखवाली करता।उसके भोकने तथा साथ रहने के एसे अन्दाज थे मानो रोटी के कर्ज से वह मुक्त होना चाह रहा हो। आम कुत्तो की तरह सूखी रोटी न खाता था।सब्जी या दूध मे डालकर रोटी देनी पडती।कम समय मे ही उसने लोगो मे एसी दहशत पैदा कर दी के मेरी बैठक पर अजनबी आदमी पाँव नही रख सकता था।कहते है कुत्ते की उम्र 12 साल होती है।उस का साथ ईतना अच्छा रहा के वक्त का पता ही न चला।कल घर मे जिक्र था के हमारा कुत्ता जाने कहाँ चला गया।घरवाले सम्भावना जता रहे थे के बेचारा मर गया होगा।
पिछले दस दिन से वह बिमार था बुढापा उसके शरीर से टपकने लगा था।आदमी की तरह सठिया भी गया था।किसी के भी घर घुस जाता। लोग उसे दुत्कारते तौ मुझे तरस आता।आज जब घर वालो ने उसकि मोत की सम्भावना जताई तो ख्याल आया के पीछले काफी समय से वह दिखाई नही दिया था।उसके जाने के बाद मै महसूस करता हूँ के उसकी जगह हमारे दिल के एक कोने मे ठीक वैसे थी जैसे घर के बाकि लोगो के लिये।
पिछले दस दिन से वह बिमार था बुढापा उसके शरीर से टपकने लगा था।आदमी की तरह सठिया भी गया था।किसी के भी घर घुस जाता। लोग उसे दुत्कारते तौ मुझे तरस आता।आज जब घर वालो ने उसकि मोत की सम्भावना जताई तो ख्याल आया के पीछले काफी समय से वह दिखाई नही दिया था।उसके जाने के बाद मै महसूस करता हूँ के उसकी जगह हमारे दिल के एक कोने मे ठीक वैसे थी जैसे घर के बाकि लोगो के लिये।
Sunday, November 20, 2011
आधा विश्व: आधा विश्व: दुनिया
अपना आकाश।
बचपन मे एक एक दिन बडे शुकुन के साथ गुजरते थे।सुबह उठते 2 आठ बज जाते।नास्ता करके बसता उठाकर स्कूल जाना,स्कूल मे पढाई कम धमा चौकडी ज्यादा।गाँव मे स्कूलो की अपनी क्ई भूमिकाए होती है।खेल के मैदान का काम बराबर के खाली पडे खेत कर देते थे।बडा खुला अहाता बहार की आबो हवा से बावास्ता रखता था।खेतो मे जाते बैलगाडी पर जब लोग बतियाते नजर आते तो उसमे भी हमे ग्लैमर और आक्रषण नजर आया करता था।वही चीज आज मै उल्टे रुप मे महशूस करता हू।श्कूल वहीँ है,और खेत भी ज्यो के त्यो है।बस अरमानो का ठीकाना बदल गया है।कल तक स्कूल मे बैठकर खेतो के काम मे ग्लैमर नजर आता था।लेकिन आज महसूस होता है कि बचपन का अपना आकाश हमने बडे होने की तमन्ना मे गवा दिया।वह आकाश जिसपर तारो के अलावा भी बहुत कुछ था।सब मुकम्मल तोर पर अपना।मै सोचता था के बडा होना बडे फक्र की बात होती है तब पिताजी तथा दूसरे लोगो को मै गोय से देखा करता।उनकी बातो का वजन,उनके निर्णय लेने के विशेषाधिकार,दिन रात कही भी चले जाने की आजादी और इतना कुछ की सब कुछ ब्यान के बाहर हो जाता।एक बार मै स्कूल से निकलकर खेत पर चला गया था तब उम्र रही होगी कोई आठ साल।हरियाली ने मेरा एसा मन मोहा के वही बैठे शाम हौ ग्ई मन मे अपूर्व शान्ति थी।उस वक्त लगा ही नही था के मैने समाज के किसी नियम का उल्घंन किया था लेकिन लोटकर जब आगबबूला हो रहे चाचा ने आँखे तरेरकर देखा तो लगा कि मेरे आकाश मे अधूरापन था।डाट खाने के घडीभर बाद साथी आये ओर मै खेलने चला गया रात खाना खाकर सोते समय भी एक बार यह ख्याल न आया के बडे होकर चीजे भूलानी इतनी आसान नही रह जायेँगी।आज बैठे बैठे अचानक बचपन का अपना स्वतन्त्र आकाश याद हो आया जहाँ सीमाए जरूर थी लेकिन सीमाऔ के उल्घँन पर कोई भेदभाव नही था।आज सीमाए कदम कदम पर लक्ष्मन रेखाऔ की तरह मोजुद है जिनका विस्तार जमीन के टुकडे तक सीमित नही वरन सम्बन्धो तक फैली है।जीवन के ईस ढर्रे से आजिज आज ज्यादातर लोग बचपन के अपने आकाश मे उडना चाहते है और मै तो अवश्य।
धीरज पुडीँर
बचपन मे एक एक दिन बडे शुकुन के साथ गुजरते थे।सुबह उठते 2 आठ बज जाते।नास्ता करके बसता उठाकर स्कूल जाना,स्कूल मे पढाई कम धमा चौकडी ज्यादा।गाँव मे स्कूलो की अपनी क्ई भूमिकाए होती है।खेल के मैदान का काम बराबर के खाली पडे खेत कर देते थे।बडा खुला अहाता बहार की आबो हवा से बावास्ता रखता था।खेतो मे जाते बैलगाडी पर जब लोग बतियाते नजर आते तो उसमे भी हमे ग्लैमर और आक्रषण नजर आया करता था।वही चीज आज मै उल्टे रुप मे महशूस करता हू।श्कूल वहीँ है,और खेत भी ज्यो के त्यो है।बस अरमानो का ठीकाना बदल गया है।कल तक स्कूल मे बैठकर खेतो के काम मे ग्लैमर नजर आता था।लेकिन आज महसूस होता है कि बचपन का अपना आकाश हमने बडे होने की तमन्ना मे गवा दिया।वह आकाश जिसपर तारो के अलावा भी बहुत कुछ था।सब मुकम्मल तोर पर अपना।मै सोचता था के बडा होना बडे फक्र की बात होती है तब पिताजी तथा दूसरे लोगो को मै गोय से देखा करता।उनकी बातो का वजन,उनके निर्णय लेने के विशेषाधिकार,दिन रात कही भी चले जाने की आजादी और इतना कुछ की सब कुछ ब्यान के बाहर हो जाता।एक बार मै स्कूल से निकलकर खेत पर चला गया था तब उम्र रही होगी कोई आठ साल।हरियाली ने मेरा एसा मन मोहा के वही बैठे शाम हौ ग्ई मन मे अपूर्व शान्ति थी।उस वक्त लगा ही नही था के मैने समाज के किसी नियम का उल्घंन किया था लेकिन लोटकर जब आगबबूला हो रहे चाचा ने आँखे तरेरकर देखा तो लगा कि मेरे आकाश मे अधूरापन था।डाट खाने के घडीभर बाद साथी आये ओर मै खेलने चला गया रात खाना खाकर सोते समय भी एक बार यह ख्याल न आया के बडे होकर चीजे भूलानी इतनी आसान नही रह जायेँगी।आज बैठे बैठे अचानक बचपन का अपना स्वतन्त्र आकाश याद हो आया जहाँ सीमाए जरूर थी लेकिन सीमाऔ के उल्घँन पर कोई भेदभाव नही था।आज सीमाए कदम कदम पर लक्ष्मन रेखाऔ की तरह मोजुद है जिनका विस्तार जमीन के टुकडे तक सीमित नही वरन सम्बन्धो तक फैली है।जीवन के ईस ढर्रे से आजिज आज ज्यादातर लोग बचपन के अपने आकाश मे उडना चाहते है और मै तो अवश्य।
धीरज पुडीँर
आधा विश्व: दुनिया
भारत को मैने आधी दुनिया की संज्ञा एसे ही नही दे दी थी।भारत भोगोलिक तथा सांसक्रतिक द्रस्टि से एक राष्ट्र मात्र नही है।न ही ईसे एकल समाज कहना तर्क संगत है।यहाँ की ईंच इँच माटी की अपनी अलग नियती और अलग आदते है।हर क्षेत्र के अपने सरोकार इस कदर बट गये है कि गाहे बगाहे क्षेत्रवाद की भावना अब मजबूती के साथ सिर उठाने लगी है।काम के सिलसिले मे मैने भारत के एक बडे भाग की नब्ज को अपने हाथो से छुआ और कम्पन की बढती तिव्रता को महसूस किया।अभी हाल ही मे उस भावना की बानगी क्ई नये जिलो की घोषणा के रुप मे सामने आई ।जहा न्ई सीमाओ ने लोगो को अपनो से अलग किया है वहाँ एक अजीब सी न समझ मे आने वाली खुशी का संचार हुआ है।लोग भले ही उस खुशी को विकास के नये अवसर की संज्ञा देते हो लेकिन वह क्षेत्रवाद से ज्यादा कुछ नही है।
धीरज पुन्डीर
धीरज पुन्डीर
आधा विश्व: दुनिया
भारत को मैने आधी दुनिया की संज्ञा एसे ही नही दे दी थी।भारत भोगोलिक तथा सांसक्रतिक द्रस्टि से एक राष्ट्र मात्र नही है।न ही ईसे एकल समाज कहना तर्क संगत है।यहाँ की ईंच इँच माटी की अपनी अलग नियती और अलग आदते है।हर क्षेत्र के अपने सरोकार इस कदर बट गये है कि गाहे बगाहे क्षेत्रवाद की भावना अब मजबूती के साथ सिर उठाने लगी है।काम के सिलसिले मे मैने भारत के एक बडे भाग की नब्ज को अपने हाथो से छुआ और कम्पन की बढती तिव्रता को महसूस किया।अभी हाल ही मे उस भावना की बानगी क्ई नये जिलो की घोषणा के रुप मे सामने आई ।जहा न्ई सीमाओ ने लोगो को अपनो से अलग किया है वहाँ एक अजीब सी न समझ मे आने वाली खुशी का संचार हुआ है।लोग भले ही उस खुशी को विकास के नये अवसर की संज्ञा देते हो लेकिन वह क्षेत्रवाद से ज्यादा कुछ नही है।
धीरज पुन्डीर
धीरज पुन्डीर
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