Sunday, November 20, 2011

आधा विश्व: आधा विश्व: दुनिया

अपना आकाश।
बचपन मे एक एक दिन बडे शुकुन के साथ गुजरते थे।सुबह उठते 2 आठ बज जाते।नास्ता करके बसता उठाकर स्कूल जाना,स्कूल मे पढाई कम धमा चौकडी ज्यादा।गाँव मे स्कूलो की अपनी क्ई भूमिकाए होती है।खेल के मैदान का काम बराबर के खाली पडे खेत कर देते थे।बडा खुला अहाता बहार की आबो हवा से बावास्ता रखता था।खेतो मे जाते बैलगाडी पर जब लोग बतियाते नजर आते तो उसमे भी हमे ग्लैमर और आक्रषण नजर आया करता था।वही चीज आज मै उल्टे रुप मे महशूस करता हू।श्कूल वहीँ है,और खेत भी ज्यो के त्यो है।बस अरमानो का ठीकाना बदल गया है।कल तक स्कूल मे बैठकर खेतो के काम मे ग्लैमर नजर आता था।लेकिन आज महसूस होता है कि बचपन का अपना आकाश हमने बडे होने की तमन्ना मे गवा दिया।वह आकाश जिसपर तारो के अलावा भी बहुत कुछ था।सब मुकम्मल तोर पर अपना।मै सोचता था के बडा होना बडे फक्र की बात होती है तब पिताजी तथा दूसरे लोगो को मै गोय से देखा करता।उनकी बातो का वजन,उनके निर्णय लेने के विशेषाधिकार,दिन रात कही भी चले जाने की आजादी और इतना कुछ की सब कुछ ब्यान के बाहर हो जाता।एक बार मै स्कूल से निकलकर खेत पर चला गया था तब उम्र रही होगी कोई आठ साल।हरियाली ने मेरा एसा मन मोहा के वही बैठे शाम हौ ग्ई मन मे अपूर्व शान्ति थी।उस वक्त लगा ही नही था के मैने समाज के किसी नियम का उल्घंन किया था लेकिन लोटकर जब आगबबूला हो रहे चाचा ने आँखे तरेरकर देखा तो लगा कि मेरे आकाश मे अधूरापन था।डाट खाने के घडीभर बाद साथी आये ओर मै खेलने चला गया रात खाना खाकर सोते समय भी एक बार यह ख्याल न आया के बडे होकर चीजे भूलानी इतनी आसान नही रह जायेँगी।आज बैठे बैठे अचानक बचपन का अपना स्वतन्त्र आकाश याद हो आया जहाँ सीमाए जरूर थी लेकिन सीमाऔ के उल्घँन पर कोई भेदभाव नही था।आज सीमाए कदम कदम पर लक्ष्मन रेखाऔ की तरह मोजुद है जिनका विस्तार जमीन के टुकडे तक सीमित नही वरन सम्बन्धो तक फैली है।जीवन के ईस ढर्रे से आजिज आज ज्यादातर लोग बचपन के अपने आकाश मे उडना चाहते है और मै तो अवश्य।
धीरज पुडीँर

No comments:

Post a Comment