महगाँई से बोखलाए सारे तमाचे आजकल किसी अनूकूल गाल की तलाश मे भटकते दिखाई देते है।एसा बस लोग अनुमान करते है कि महँगाई ने उन तमाचो को ईतना हिँसक बना दिया है कि गाल दिखाई दिया नही कि वे अपने आपको सम्भाल नही पाते।वास्तव मे ईस अलगाव कि असल वजह खुद उन तमाचो को भी मालूम नही।वजहे जब गणना के दायरे से बाहर हो जाती है तो हमे मालूम ही नही रहता कि हमारा आक्रोश बावजह भी है।मैरे तमाचे मे भी आक्रोश की माकूल भावनाए पैदा हो रही है लेकिन मेरे तमाचे को अभी बहुत संतोष करना पडेगा क्योकि लाइन बहुत लम्बी हो चुकि है।एक बडी पेचीदा समस्या ओर भी है जिसका समाधान शायद सरकार के बजट मे हो यह कि असँख्य तमाचो के सामने मुह तो उगलीयो पर गिने जाने लायक है एसे मे सभी तमाचो के शाथ न्याय का तत्काल कोई उपाये किया जाना चाहिए।कम से कम दस तमाचो पर एक गाल तो होना ही चाहिए ताकि अन्तरष्ट्रीय मानक के थोडा तो करीब हो।
कल एक आदमी अपने स्तर के एक आदमी के साथ लडते लडते इतना तैश मे आया कि वो तमाचा मारने लगा शुक्र है कि मै समय पर पहुच गया वरना तमाचे के प्रोटोकोल से अनभिज्ञ वे साधारण आदमी गलत कर जाते।मैने विस्तारपूर्वक समझाया-"हे लोकतन्त्र के सातसौ वे स्तम्भ आप क्या अधर्म करने जा रहे थे।आपको शायद मालूम नही आपका तमाचा वास्तव मे ब्रह्मश्त्र है जिसके युँ आपस मे प्रयोग से न तो उचित प्रचार मिलेगा और न ही सुधार का कोई मार्ग।आपको चाहिये कि एक फार्म भरकर तमाचे राष्ट्रीय प्रर्दशन मे भागीदार हौ क्या पता आपका तमाचा एसे किसी गाल की शोभा बने जो कि दुर्लभ तथा अनछुआ हो।"
मेरे तमाचा ज्ञान से वे इतने प्रभावित हुए कि पहले तो आपस मे गले मिले और मुझसे फार्म की वेबसाइट पता की ओर खुशी खुशी घर चले गये।
धीरज पुन्डीर
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